दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहे जाने वाले भारत में इस समय हो रहे चुनावों में लोकतंत्र की साख ही खतरे में पड़ गई है। यह संभवत: पहली बार है जब आम चुनावों में जनता से जुड़े सारे मुद्दों के अलावा सबसे अहम मुद्दा संविधान की रक्षा का बन गया है। कांग्रेस नेता तो अब अपने प्रचार में बाकायदा संविधान की एक छोटी प्रति साथ ले जाने लगे हैं, जिसे लोगों को दिखाकर वे याद दिलाते हैं कि इस संविधान के कारण ही हमारे नागरिक अधिकार और लोकतंत्र सुरक्षित हैं। मगर भाजपा इस संविधान को ही बदलने का इरादा रखती है। प्रधानमंत्री मोदी इस आरोप को कई बार गलत ठहरा चुके हैं। लेकिन इस बार सात चरणों में हो रहे चुनावों में सत्तारुढ़ दल के साथ-साथ संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह से काम कर रही हैं, उससे संविधान और जनाधिकार दोनों को लेकर चिंताएं उपजना स्वाभाविक है।
चुनावों के ठीक पहले इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इसके आंकड़े उपलब्ध कराए। लेकिन बैंक ने इन आंकड़ों को सार्वजनिक करने में आनाकानी की। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट को सख्ती दिखानी पड़ी और तब जाकर इस मामले की असलियत लोगों के सामने आई। इसी तरह कोविड काल में बनाए गए पीएम केयर्स फंड की जानकारी भी सार्वजनिक करने की मांग बार-बार उठती रही है। इस पर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी गई, तो बताया गया कि यह सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं आता है। जिस कोष में लाखों-करोड़ों रूपयों का दान लिया गया, उसका कोई लेखा-जोखा सार्वजनिक नहीं किया जा रहा, यह भी आश्चर्य की बात है। इसी प्रकार ईवीएम को लेकर भी कई सवाल उठे और वीवीपैट के मिलान की याचिका जब सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई, तब चुनाव आयोग ने ईवीएम पर कई ऐसे खुलासे किए, जिनकी जानकारी इससे पहले जनता को नहीं थी। और अब ऐसा ही एक और प्रकरण सामने आया है, जिसमें चुनाव आयोग ने जानकारी देने से इंकार किया है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआऱ) और कॉमन कॉज़ नाम की दो संस्थाओं ने अदालत में एक आवेदन देकर इस बार के चुनावों में मतदान के प्रतिशत के आंकड़े सार्वजनिक करने की मांग उठाई है। लेकिन चुनाव आयोग ने इससे इंकार करते हुए कहा है कि फॉर्म 17सी के आधार पर प्रमाणित मतदान प्रतिशत डेटा साझा करने के लिए चुनाव आयोग कानूनन बाध्य नहीं है। आयोग ने अदालत में दिए अपने हलफनामे में कहा है कि वेबसाइट पर मतदान की संख्या बताने वाले फॉर्म 17सी को अपलोड करने से गड़बड़ियां हो सकती हैं। इमेज के साथ छेड़छाड़ की संभावना है। गौरतलब है कि फार्म 17 सी वह महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो हर मतदान केंद्र पर महत्वपूर्ण विवरण दर्ज करता है। इनमें इस्तेमाल की गई इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की पहचान संख्या, मतदान केंद्र को सौंपे गए पंजीकृत मतदाताओं की कुल संख्या और रजिस्टर (फॉर्म 17 ए) के अनुसार वास्तव में मतदान करने वाले मतदाताओं की कु ल संख्या शामिल होती है। इसके अतिरिक्त, यह उन मतदाताओं की संख्या को नोट करता है जिन्होंने रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद मतदान नहीं करना चुना या नोटा किया।
यह जाहिर है कि कानून और जनता के विश्वास का हवाला देकर चुनाव आयोग हरेक बूथ पर डाले गए वोटों का आंकड़ा देने से इंकार कर रहा है, जबकि मतदान के बाद वह गिने गए वोटों का आंकड़ा बताता ही है। आयोग के इस रवैये पर वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने आश्चर्य जताते हुए लिखा है कि चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा: फॉर्म 17 अपलोड करने का कोई कानूनी आदेश नहीं है जो मतदान केंद्र पर डाले गए वोटों का रिकॉर्ड है। सचमुच चौंकाने वाला है! यदि गिने गए वोट अपलोड किए गए हैं तो डाले गए वोट क्यों नहीं अपलोड किए जा सकते? ऐसे आयोग पर हम कैसे भरोसा करें! इसी तरह आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज ने भी टिप्पणी की है कि ईसीआई भूल गया है कि हमारे लोकतंत्र में लोगों को सूचना का अधिकार है! वास्तव में चुनाव संचालन नियमों का नियम 93 लोगों को फॉर्म 17सी सहित चुनाव पत्रों का निरीक्षण करने और उनकी प्रतियां मांगने की अनुमति देता है।
चुनाव आयोग के इंकार के बाद कानून के कई जानकार इस पर सवाल उठा रहे हैं। फिलहाल शुक्रवार को इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी, तब देखना होगा कि आयोग डाले गए वोटों के आंकड़े सार्वजनिक न करने के और क्या तर्क पेश करता है। लेकिन फिलहाल उसके इंकार से एक बार फिर लोकतंत्र में पारदर्शी चुनाव कराने की उसकी जिम्मेदारी पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। यह भी संभवत: पहली बार ही हो रहा है कि किसी चुनाव में लगातार चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सड़क से लेकर अदालत तक बार-बार सवाल उठ रहे हैं।
निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के जरिए ही देश में लोकतंत्र सुरक्षित रखा जा सकता है। अन्यथा चुनाव कराने की जरूरत ही नहीं है। सत्तारुढ़ भाजपा तो पहले ही अगले शासनकाल की बातें करने लगी है। प्रधानमंत्री मोदी ने लालकिले की प्राचीर से ऐलान कर दिया था कि अगली बार भी मैं ही झंडा फहराने आऊंगा और अब वे ये दावे भी कर रहे हैं कि किन-किन देशों से उन्हें अगले कार्यकाल के दौरान न्यौता भेजा जा चुका है। भाजपा नेता अगर 4 सौ पार सीटों का दावा कर रहे थे, तो उसमें भी वे जनादेश के प्रति उपेक्षा का भाव दिखा रहे थे।
अपने राजनैतिक फायदे के लिए भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी चाहे जो बयान दें, लेकिन देश की संवैधानिक संस्थाओं से तो यही उम्मीद की जाती है कि वे बिना किसी पक्षपात के कार्य करें और उनके हर फैसले में लोकतांत्रिक मर्यादा का पालन हो। चुनाव आयोग पर इस समय देश नहीं दुनिया की निगाहें हैं, क्योंकि भारत के लोकतंत्र को अन्य देश मिसाल की तरह देखते हैं। इस लोकतंत्र को बचाना ही इस चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। इस चुनौती का सामना करने में चुनाव आयोग कैसी भूमिका निभाता है, यह भी इतिहास में दर्ज होगा।